मैं सड़क हूँ
मैं सड़क हूँ । सब मुझपर चलते हैं । आदमी, रिक्शा, बस, साइकिल सभी मुझपर इधर से उधर आते-जाते हैं । बालक, जवान, बूढ़े सभी के काम आती हूँ। मैं घर और विद्यालय के बीच सेतु हूँ । लोग मेरे किनारे मकान बना लेते हैं । सामान बेचने वाले भी मेरे दोनों ओर दुकानें लगाते हैं । चौराहे पर पुलिस का सिपाही वर्दी पहने खड़ा होता है। वह यातायात को अनुशासित रखता है । रास्ता बदलने के लिए कई बार लोगों को मुड़ना पड़ता है पर इसमें मेरा दोष नहीं है। मैं तो सदा सीधी चलने के लिए तैयार हूँ । लोग अपनी जरूरत से कभी मुझे टेढ़ी, नीची और ऊँची बना देते हैं । मेरा आरंभिक स्वरूप कच्चा था । उस पर बैलगाड़ी, ताँगा, ऊँटगाड़ी जैसे वाहन चलते थे फिर कोलतार डालकर पक्की सड़कें बनने लगीं । आजकल नई तकनीक आ गई है । इस तकनीक में मुझे सीमेंट से बनाने लगे
हैं। अपना यह नया रूप बहुत अच्छा लगता है । दुख उस समय होता है जब लोग गंदा कर देते हैं । लोग पान खाते हैं । बिना सोचे-समझे जहाँ जी में आया मुझपर थूक देते हैं । लोग जगह-जगह मुझे खोदकर गड्ढे बना देते हैं । इससे मेरे शरीर पर बहुत से घाव हो जाते हैं। गड्ढों के कारण अनेक दुर्घटनाएँ होती हैं फिर भी न जाने लोग ऐसा क्यों करते हैं ? मैं सदा साफ-सुथरी रहना चाहती हूँ। सबको रास्ता दिखाना चाहती हूँ । मेरे कारण देश में दूर-दूर रहने वाले लोग एक-दूसरे से आसानी से मिल पाते हैं । मैं जहाँ जाती हूँ, वह परिसर विकसित हो जाता है । मैं चाहती हूँ कि हर गाँव को एक-दूसरे से जोड़ें, लोगों में मेल-जोल बढ़ाऊँ । पूरे देश में खुशहाली लाऊँ । विश्वास है कि एक दिन मेरी इच्छा निश्चित ही पूरी होगी ।